आदिम गूंज २

जंगल गाथा

जंगल मौन
बरसों से
अपना अपमान पीड़ा
पी/जी रहे है
....
उनका हाहाकार ........
लूट खसोट और अत्याचारों की
दारूण गाथा
विलाप गीत में बदल चुकी है
रूंधे गले और सूखी आखों से
तकते है अपने आतताईयों के चेहरे....
मौन रूदन और आर्तनाद से
गूंजता है समूचा जंगल
........
हर आहट पर
ठिठके/ सहमे
गतिहीनता के भंवर में छ्टपटाते
मुक्ति की मूक याचना में लीन
....
आकाश की ओर उठाते हैं नयन
षडयंत्रो/ कुचक्रों के विनाश की कामना में
स्वयं में डूब रचते हैं वे
अबूझ जंगल राग
....
जिसकी अनुगूंज ब्रह्मांड तक हिला सकती है
अपनी खामोशियों में समेटे हैं वे
अजीब सी एक उदास सिम्फ़नी
........
उनका बीहड़ी औघड़ सौंदर्य
चौंधियाता है पर्यटकी आखों को
पल भर के लिए सही
जो जाने/अन्जाने
झौंक देते है निरीह निहत्थे जंगल को
निरर्थक विवादों के चक्रव्यूह में
अपमानित और लहुलुहान होने को
....
जो प्रतिशोध/प्रतिघात की ज्वाला में
घिरे होने के बावजूद भी
प्रतिकार मे नहीं उठाता है कदम
....
न ही देता है हमें कोई अभिशाप
वरन लीन रहता है सामर्थ्य भर आशीषें उडेंलने
इस अग्निदीप्त धरा पर
....
साकार करता/रचता है हरियाली का स्वप्न !
........

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिम गूंज

बांसुरी वादक....

शायद तुम्हें लगे कि
डरा धमकाकर
मार डालोगे मुझे
और मुझ जैसे लोगों को
और
जीवन भर
चैन की बांसुरी बजाओगे
....

पर इतनी आसानी से
हम से अपना
पिंड न छुड़ा पाओगे
हम फिर से लेंगे जन्म
बनकर हजार आंखें
जो रखेंगें नजर
तुम्हारी एक एक हरकत पर
....

जो सोचा भी कभी
बचकर निकल भागने का
तो हजारों हाथ मिलकर
देंगें पटखनी
....

भागने की जगह तक
पड़ जाएगी कम तुम्हें
और भीड़ आएगी निकलकर
अपने अपने घरों से
और कुचल डालेगी
तुम जैसों को चुटकियों में
........

रेत पर लिखी दास्तान....

रेत पर लिखी सदियों तक
हमारी दास्तान तुमने
मनचाही मनमाफ़िक
कि मिटा सको जब चाहो
और गढ़ लो कोई भी नया झूठ
हर बार
हमें बहलाने फुसलाने को
पर अबकि बार
कामयाब न होगा
तुम्हारा कोई भी तीर या तुक्का
जब हम
लिखेंगे अपनी दास्तान
चट्टानों के दिलों पर
........
-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

आदिवासी आवाज

आदिवासी समाज सदियों से तथाकथित सभ्य समाजों से उपेक्षित एक अदृश्य दुनिया के रूप में विश्व के विशालकाय मंच के किसी अंधेरे कोने में मौन खड़ा उस पल की प्रतीक्षा कर रहा है जब संपूर्ण विश्व की दृष्टि उस पर फोकस या केंद्रित होगी और उसके कार्यों की सराहना होगी. पर अफसोस वह गलत समय में गलत जगह पर खड़ा अपनी जगह तलाशने की असफल कोशिशों में लगा हुआ है. मंच पर अपनी जगह और जमीन तैयार करने के लिए आदिवासी समाज को भी उन्हीं औजारों और हथियारों को अपनाना होगा. जिनका प्रयोग करके अन्य समाज उस जगह पर पहुंचे हुए हैं.

पर दुर्भाग्यवश हजारों सालों से सभ्य समाजों से कटे रहने की वजह से और निरंतर उनसे शोषित होते रहने की वजह से आज हमारा समाज इस स्थिति में ही नहीं है, कि उनके सामने खड़ा रहकर अपनी उपस्थिति तक दर्ज करा सके. पर अब धुंधलके से बाहर निकलने का वक्त आ पहुंचा है और आवश्यकता इस बात कि है कि उस समाज के सदस्य होने के नाते हम सबका यह फर्ज बनता है कि अगर हमें अवसर मिलता है तो उसका हम भरपूर फायदा उठाएं और अपने समाज को विश्व के मंच पर उसकी सही और सम्मानजनक स्थान पर पहुंचाने में एक दूसरे की मदद और उत्साहवर्धन करें.

यही नहीं आवश्यकता इस बात की भी है कि इस कार्य को एक आहुति मान इसके लिए अपना तन मन और धन यहां तक कि अपना जीवन तक न्यौछावर करने के लिए भी तत्पर रहें क्योंकि अगर हम यह अवसर चूक जाते हैं तो हो सकता है कि आने वाले समयों में आदिवासी समाजों का नामोंनिशान तक मिट जाए और हमारे सामने अस्त्तित्व का संकट कुछ इस कदर गहरा जाए कि हम खुद को समय के आईने में पहचान भी नहीं सके और सिर्फ दूसरों द्वारा थोपी गई पहचानों पर खरा उतरने के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहें और खुद की अपनी पहचान को जान समझकर उसे विकसित और किसी धरोहर के रूप में संवारने से चूक जाएं या फिर उसे किसी भूले बिसरे सपने की तरह भुलाकर जिंदगी के सफर में आगे बढ़ जाएं.

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

दूसरों के आईने में आदिवासी समाज

दुनिया के रंगमंच पर सभी समाजों का प्रतिनिधित्व नजर आता है, पर आज भी आदिवासी समाजों की आधी अधूरी तस्वीर ही उपलब्ध है जो कि उनकी सच्चाईयों के साथ पूरी तरह से न्याय करने में असमर्थ है. उन आधी अधूरी तस्वीरों के आधार पर उकेरी गई छवि आदिवासी समाज को फायदा पहुंचाने की बजाय ज्यादा नुक्सान ही पहुंचाती है. लोकमानस में मौजूद अर्धसत्यों के भंवरजाल में आदिवासी समाजों की सच्चाईयां विलीन हो जाती हैं और लोक चेतना में से बडी ही खामोशी से ओझल भी हो जाती है.

जब कभी भी हम दूसरों के दर्पणों में या आईने में हम अपनी छवि या तस्वीर देखने का प्रयत्न करते है तो वे हमेशा ही हमें धूमिल, कुरूप, कालिमायुक्त और बेहद ही डरावने दिखाई देते हैं, जिन्होंने हमेशा हमें जंगली बर्बर और असभ्य समाज के रूप में ही देखा है. उन खौफनाक छवियों का हम पर इतना गहरा आतंक छाया होता है कि हम दुबारा पलटकर उन्हें देखना गवारा नहीं करते. हम अपनी मलिन छवियों की भयंकरता से आतंकित और त्रस्त होकर दर्पणों में अपनी छवियों को निहारने से भी गुरेज करने लगते हैं. हमें ऎसा लगता है कि शायद हम में ही कोई कमी है वर्ना बाकी सब कुछ तो उस दर्पण में साफ स्पष्ट नजर आता है.

पर हम इस बात को भूल जाते हैं कि दूसरों का दर्पण, उनके सोच, पूर्वाग्रहों, जीवनमूल्यों का सम्मिश्रण होता है जो कि उनके किसी खास सोच या बात को दर्शाने मात्र के लिए ही प्रयुक्त होता है. ऎसा दर्पण खुद से भिन्न, अलग और नई सच्चाईयों को प्रतिबिम्बित करने के लिए डिजाईन ही नहीं हुआ है. अपनी खास सीमित दायरे के परे ऎसा दर्पण अगर कुछ भी दिखाने का प्रयास करेगा तो वो धुंधला, मलिन और कालिमायुक्त ही नजर आएगा.

आवश्यकता इस बात की है कि हम उन कमियों और पूर्वाग्रहों के मायाजाल से बाहर निकलें और अपनी छवियों को देखने के लिए नई अंतर्दृष्टियों से युक्त नए दर्पणों का निर्माण करें जो कि हमारी अपनी कसौटियों और मापदंडों को दर्शाता है ताकि हम दूसरों के द्वारा तय किए गए मापदंडों और पैमानों पर खरा उतरने की कोशिशों में अपनी तमाम जिन्दगी न्यौंछावर करने की अपेक्षा अपने मापदंडों और प्रतिमानों का निर्माण और विकास करें ताकि आने वाले समयों में हमारा समाज अपनी छवि दूसरों के द्वारा उधार में दिए गए दर्पणों में देखने की जिल्लत और अपमान से बच जाए.

हमारा आदिवासी समाज अपनी धूमिल और मलिन अपमानजनक छवियों के आतंक और यन्त्रणा से उबरकर अपने मापदंडों और प्रतिमानों पर खरी उतरती सम्मानजनक छवियों पर गर्वान्वित अनुभव करने के अवसरों को समझना और ढूंढना सीखें और दुनिया के सामने अपनी विकृतिपूर्ण असंगतियों से भरी कुरूप छवियों की बजाए एक सही तस्वीर प्रस्तुत कर सकें.

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-

अरण्य गाथा

प्राचीन काल से नदियों की उर्वर घाटियां और सघन दुर्गम वनाच्छादित प्रदेश आदिम समाजों का उदगम स्थली रही हैं. वहीं पर वे आदिम बस्तियां पनपी और विकसित हुई. पर नदी घाटी सभ्यता और बीहड़ वनों में रहने वाले आदिम समाजों की विकास यात्रा काफी हद तक अलग और एक दूसरे से भिन्न भी रही हैं. एक तरफ जहां नदी घाटी सभ्यता विकास के उच्चतम शिखर पर आसीन है वहीं पर आज भी उन वनों में रहने वाले लोग सभ्यता के विकास यात्रा में खुद की गणना और पहचान एक सहयोगी या भागीदार के रूप में नहीं वरन उसके द्वारा सह्स्त्राब्दियों से छले और शोषित, हाशिए के भी परे धकियाए गए लोगों के रूप में करते हैं जो कि आज भी अपने पुरखों के द्वारा झेले गए अपमान उपेक्षा और अवहेलना के दंश के अभिशाप का घूंट को पीने को विवश हैं.

यह कमोबेश दुनिया के कोने कोने में बसने वाले उन आदिम समाजों के वंशजों की कहानी है जिन्होने प्रकृति की गोद में आश्रय लिया और उसे एक संरक्षक के रूप में पूज्य और आराध्य मानकर उसके साथ एक सामांजस्यपूर्ण सदभावना और सौहार्द का संबंध स्थापित किया और प्रकृति की संपूर्ण छ्टा को दैवीय प्रसाद और आशीर्वाद मान अपने जीवन को धन्य समझा. प्रकृति पूजकों का वो आदिम समाज को भी अपना आत्मीय संगी और अपने परिवारों और समाजों का एक अभिन्न हिस्सा तो मानता था जिससे वो वक्त पड़ने पर परिवार के सदस्य की तरह लड़ झगड़ और रूठ सकता था. पर उससे किसी भी कीमत पर एक शत्रु की तरह व्यवहार नहीं कर सकता था. प्रकृति का मंद मधुर संगीत उसके मन प्राण और सांसों में कुछ इस कदर रच बस गया था कि उसके बगैर जीने की कल्पना मात्र से वो सिहर उठता था.

पर सभ्यता के विकास के रथ का पहिया जब जब उन आदिम समाजों के समीप से गुजरा तो अपने पीछे तबाही और विध्वंस की असंख्य कहानियां छोड़ गया. जीवन के हर क्षेत्र में आए अभूतपूर्व परिवर्तनों और तकनीकी विकास के अहंकार से सराबोर मानव प्रकृति पर अपना आधिपत्य और वर्चस्व स्थापित करके उसे अपना गुलाम बनाने के एक सूत्रीय मिशन में जुट गया और मात्र एक दो सदी के भीतर ही सभी प्राकृतिक संसाधनों को बेदर्दी से लूट खसोटकर आज स्वयं तबाही के कगार पर आ खड़ा हुआ है जहां से वापसी लगभग असंभव ही प्रतीत हो रही है. सभ्यता के विकास ने जहां हमारे जीवन के हर क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति ला दी है और हमारे जीवन को कुछ और सरल बना दिया है और किसी वरदान से कम नहीं लगता, वहीं ये समूची मानवता के लिए अभिशाप भी साबित हुआ है.

अगर हम इस समस्या को विश्व के परिपेक्ष्य में देखें तो यह बात पूरी तरह से चरितार्थ होती है कि विकास की अंधाधुंध होड़ ने मानवीय मूल्यों जैसे आपसी मेलप्रेम सहयोग समानता भाईचारा और एकता जैसे मूल्यों को ठुकराकर ईरषया डाह लालच षड्यन्त्र झूठ छ्ल प्रपंच जैसे मूल्यों को बढ़ावा दिया जिसमें लोगों को अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए दूसरों को गुलाम और बंधुआ मजदूरों की तरह इस्तेमाल करने से भी गुरेज नहीं होता. जैसा कि अफ़्रीका, आस्ट्रेलिया, अमेरिका और अन्य देशों में हुआ जहां पर विकास की बढ़ती होड़ ने प्राकृतिक संसाधनों और लोगों का जमकर शोषण किया और उन लोगों को दोयम और उससे भी निचले स्तर का इंसान बना दिया जो आज भी अपने पुरखों का सा कठिन जीवन बिताने को विवश हैं.

आज विश्व में गहराता उर्जा संकट ग्लोबल वार्मिंग और दूसरे इससे संबंधित अन्य समस्याएं हमारे सामने विद्यमान हैं जिनका अगर जल्द समाधान न खोजा गया तो काफी देर हो सकती है. जंगलों के अंधाधुंध कटने के कारण ओजोन का बढ़ता छेद और ग्रीन हाउस के बढ़ते प्रभाव के कारण मौसम में बढ़ते बदलाव कहीं पर बाढ़ तो कहीं सूखे की समस्या ग्लेशियरों का पिघलना और नदियों का जलस्तर का बढ़ना और पेयजल की कमी आदि मानव निर्मित समस्याओं की वजह से विनाश का बटन दबने में अब बिल्कुल भी देरी नहीं है.

आवश्यकता इस बात की है कि अत्याचारों से त्रस्त या प्रकृति का आर्तनाद को हम खतरे की घंटी समझे. ताकि हम प्रकृति के साथ साथ उन लोगों का भी सम्मान करना सीखें जिन्होंने हजारों सालों से प्रकृति के निकट रहने के बाद भी उसका अनावश्यक दोहन नहीं किया और उसे किसी अनमोल थाती की तरह सहेज संवार कर विकसित समाजों के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया जो प्रशंसा और इनाम की हकदार है न कि अपमान अवहेलना और तिरस्कार जैसा कि उन अभागों के हिस्से हमेशा ही आया है.

तो हम सबको मिलकर यह तय करना चाहिए कि समय के इस मोड़ पर दूसरों का अंधानुकरण करके प्रकृति और उसके साथ साथ खुद भी विनाश के गर्त में ढकेल देंगे या फिर सभी अपनी अपनी जिम्मेवारी और दायित्वों को समझकर उपरोक्त समस्याओं को छोटे छोटे स्तर पर व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से उन्हें सुलझाने के अपने प्रयासों को अपना पहला और अंतिम कर्तव्यों के रूप में देखना आरंभ करेंगे. आशा है कि इस सबमें हमारा यह छोटा सा प्रयास एक मजबूत कड़ी साबित होगा.

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-