खामोश फ़लक

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सम्मोहक बाहरी शक्तियों का दबाव और परिवर्तन की आंधियों के भंवरजाल मे फंसा आदिवासी समाज आज अपनी पहचान तक को खो चुका है. विकसित समृद्धशाली और ताकतवर बाहरी दुनिया की चकाचौंध से घबराया आदिवासी समाज दिशाहीन और दिग्भ्रमित सा अपने सामने घटने वाली घटनाओं को किसी मूक दर्शक सा ताक भर रहा है. उसके बारे में आज दुनिया बहस कर रही है पर आदिवासी समाज उन सभी मंत्रणाओं को किसी अदृश्य सीमारेखा के बाहर से देख भर रहा है और उसमें शामिल होकर अपनी बात रखने तक का माद्दा और समझबूझ अभी अविकसित और बीजाकार रूप में है इसलिये अकसर वह उन सारी सभाओं समारोहों गोष्ठियों के समापन पर वह ठगा सा ही महसूस करता है. दूसरों के लिये वो कोई कौतुक का विषय भर है जिससे अपना मनोरंजन तो किया जा सकता है. पर बाहर से फीकी उदास और अन्धेरी नजर आने वाली उन जिन्दगियों में झांक कर उनकी समस्याओं को जानने समझने का साहस कोई बिरले ही कर पाता है.

आज का तथाकथित मूख्यधारा समाज बाजारवाद उपभोक्तावाद के गलाकाट प्रतियोगितावाद के पतनशील मूल्यों से उपजे जीवन दर्शन पर आधारित है. ऎसे समाजों में छाई अलगाव अकेलापन अवसाद घुटन टूटन बिखराव और नैराश्य की भावनाएं उसी में मौजूद विसंगतियों और विरोधाभासों का एक विडम्बनापूर्ण प्रतिबिम्ब है. यही अब मूख्यधारा समाज के हाथों में आदिवासी समाजों को भी देखने परखने का एक विश्वसनीय प्रतिमान और औजार बन चुका है. हालांकि आदिवासी समाजों की सच्चाई इन तथाकथित मूख्यधारा समाजों से कई प्रकाशवर्ष दूर है. आज के पतनोमुख और अधोगामी समाजों के सम्मुख आदिवासी समाजों के जीवनमूल्य और जीवनदर्शन किसी दैदीप्यमान प्रकाश स्तम्भ की तरह हैं जो विनाश के कगार पर बैठे हुए संसार को आज भी बचाने और संरक्षित रखने का मूलमन्त्र देने मे सक्षम हैं.

यही कारण है कि ये बात आज संसार के काफी देशों में बड़ी ही शिद्दत से महसूसी और स्वीकारी जा रही है जहां पर ऎसे समाजों को बचाए रखने की मुहिम तक छिड़ चुकी है ताकि उनके साथ उनके अनमोल परम्परागत ज्ञान का खजाना कहीं हमेशा के लिए विस्मृति के अन्धकूप मे विलीन न हो जाए. पर दुख इस बात का है कि अक्सर अपने देश में आदिवासी समाजों के हिस्से शोषण दमन तिरस्कार अवहेलना उदासीनता ही आई है जहां उसे पल पल अपमान का घून्ट पीना पडता है और अपनी पहचान की वजह से जिन्दगी भर शर्मिंदगी तक उठानी पड़ती है और उसके साथ दोयम दर्जे या उससे भी निचले स्तर के नागरिक के रूप में व्यवहार किया जाता है. इस तरह एक आदिवासी अपने ही देश मे अजनबी या बाहरी बनकर जीने को अभिशप्त है जहां पर हर जगह उसे सन्देह की नजर से देखा जाता है.

आज आदिवासी समस्याओं पर एक नई दृष्टि विकसित करने की जरूरत है ताकि उनका नए परिपेक्ष्य मे पुनरावलोकन किया जा सके. समस्याओं की नई रीति से जांच पड़ताल से मिली नई अंतर्दृष्टियों की रोशनी में समाधान खोजने की प्रक्रिया विकसित हो और बाहरी दबाव से खन्डित समाज विकास के नाम पर हुए विस्थापन सरीखे कई समस्याओं से जूझने के लिए शक्ति साहस और सामर्थ्य बटोर सके और नवनिर्माण की राह पर आगे बढ़ सके और दुनिया के सम्मुख अपनी अनूठी छवि प्रस्तुत कर सके.

इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आरम्भ हो रहा है आत्मसाक्षात्कार और आत्ममन्थन का ये एक नया सफर. उम्मीद है कि आप सभी लोग इस यात्रा मे साथ मिलके आगे बढ़ेंगे.

-उज्जवला ज्योति तिग्गा-