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मल्टी लेवल मार्केटिंग या एम एल एम का चतुर्दिक फैलता मायाजाल .... कुछ सवाल

आजकल उच्च मध्यमवर्गीय या निम्न मध्यमवर्गीय लोगों के मध्य इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा फैलाए गए ऐंद्रजालिक मायाजाल किस हद तक खुद उनके जी का जंजाल बन सकता है इस बात से अभी वे खुद वाकिफ नहीं हैं. उनके चतुर सुजान बहुरूपिए प्रतिनिधि जनता को सब्जबाग दिखाते हैं उनके सच्चे हमदर्द का रूप धरकर उनसे मिलते हैं और कई हद तक भोली भाली जनता उनके बहकावे में आकर उनकी चिकनी चुपड़ी बातों में यकीन कर बैठती है.

अपने सीमित साधनों में अपने छोटे छोटे ख्वाबों को किसी तरह पूरी करने की तमन्ना में जी जान से जुगत भिड़ाते मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों में भोग विलास से ऊबे अघाए उच्चवर्गीय लोगों की चकाचौंध से भ्ररी विलासितापूर्ण जीवन शैली के आकाशकुसुमीय सपने को उनकी पहुंच में यहां तक कि उनकी मुटठी में पहुंचा देने का उनका दावा उन लोगों के जीवन में कहीं गहराईयों में दबी छिपी कुंठाओं को सतह पर बाहर लाने के साथ साथ उन अधजले सपनों की बची खुची राख में दबी चिंगारियों को हवा देकर भड़काने का काम करता है जिसको पूरा न कर पाने की कोशिश कई बार उसी परिवार के ऊपर बहुत भारी पड़ती है जिन्हें वो तमाम खुशियों या शानोशौकत या ऐशोआराम की चीजें मुहैया कराने की कोशिश की जा रही थी.

मध्यमवर्गीय परिवेश में बढ़ते हुए परिवार सहित आत्महत्याओं के मामले या फिर उनमें कुंठा असंतोष ईष्या वैर डाह जलन और हिंसक प्रवृति का फैलना अपने सीमित साधनों में किसी तरह चांद को हासिल करने का सपना मात्र ही है जो किसी का विरले ही पूरा होता है. पर इसमें केवल इन्हीं की भूमिका महत्वपूर्ण नहीं रही है. इसमें हमारी दृश्य श्रव्य या इलेक्ट्रॅोनिक सूचनातंत्र या मीडिया का भी उतना ही बड़ा हाथ है जिसने समाज में प्रचलित संस्कृति और संस्कार और जीवन मूल्यों के पैमानों व प्रतिमानों को शीरषासन कराकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्रचारित बाजार की संस्कृति को जबरन जनमानस पर थोपने की फूहड़ कोशिश में लगे हुए हैं. जो आर्थिक स्वतंत्रता के नाम पर लोगों की मदद कर उन्हें स्वावलंबी बनाने का नारा लगाकर व उपभोक्ता के हित के बहाने अपने निहित स्वार्थों को ही साधने में जुटी हुई है.

उनके सतरंगी और इंद्रधनुषी सब्जबागों की चमक से चौंधियाए लोग इसके पीछे छिपे षडयंत्रों या उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा रची गई साजिशों से अंजान हैं जो उनके देश में कई लघु उद्योगों हस्तकरघा उद्योगों के असमय कालकवलित होने और फलस्वरूप लाखों लोगों की जीविका और साथ ही उनके जीवन के हाशिए से भी बाहर धकियाए जाने के लिए जिम्मेवार हैं.

पर अपने दिल पर हाथ रखकर इस बात का जवाब ईमानदारी से देने का वक्त अब आ गया है कि अपने देश की अवनति के लिए क्या हम और आप जिम्मेवार नहीं हैं? जब हम जाने या अंजाने ही सही इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा रची गई साजिशों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से साझीदार होते हैं उनके साथ या तो अपनी ही जड़ों को खोदने या समूल नष्ट करने में सहयोग करके या इस विषय में जानते बूझते चुप्पी साधकर.

पर क्या इस बात से किसी को कोई परेशानी नहीं होती जब समाज का एक तबका भोग विलास के आयोजनों और प्रयोजनों में मस्त रहता है तो वहीं लाखों करोड़ों घरों में चूल्हा नियमित नहीं जलता. जो आज भी जीवन के बुनियादी सुविधाओं से मरहूम हैं. औद्योगिक व तकनीकी क्रांति की अभूतपूर्व प्रगति और उपलब्धियां भी उनकी जिंदगियों को आज भी पूरी तरह से परिवर्तित करने में असमर्थ हैं. उनमें से अधिकांश भी उसी तरह जीवन व्यतीत करने को विवश हैं जिस तरह से उनके पुरखे या पूर्वज जिया करते थे.

यानी जब बाकी दुनिया इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुकी है तो हमारे समाज की अधिकांश जनता शायद सोलहवीं या सत्रहवीं सदी में ही जीने के लिए अभिशप्त हैं. तो क्या यह उनके मुख पर वास्तविकता और यथार्थ का एक झन्नाटेदार चांटा नहीं है जो अपने समाज की इस वास्तविकता को येन प्रकारेन झुठलाने की कोशिश में लगे हैं और उसे किसी भांति धो पौंछकर झाड़कर बाजार यानी अपने आकाओं के सामने प्रस्तुत करने की कोशिशों में लगे हुए हैं.

आज के युग में जिसे सूचना युग ही माना जाता है और सूचना को किसी हथियार यानी अस्त्र की तरह ही उपयोग में लाया जाता है और सूचनातंत्र के चौतरफ़ा हमले से त्रस्त व आतंकित जनता क्या उसका उपयोग अपनी जीवनशैली सांस्कृतिक विरासतों को बचाने में कर सकती है? अब तो कई बार यह लगने लगा है कि यह तमाम मायाजाल उस पढ़े लिखे मध्यमवर्गीय लोगों की ज मात को खामोश करने का एक बेहद अनूठा और नायाब तरीका है जहां वे एक दूसरे को चुनौती देने की बजाए कंधे से कंधा मिलाकर अपने देश की आर्थिक सांस्कृतिक स्वतंत्रता को औने पौने दामों में बेच देने में तुले हुए हैं नव साम्राज्यवाद के अपने समाज में इस रूप में घुसपैठ की वास्तविकता से आंखें मूंदकर जो अपने मनमोहक और लुभावने अवतार में सबको भरमाकर हर चीज पर अपना कब्जा सिद्ध करने में लगी हुई है.

अविकसित और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को चौपट और नष्ट करने में बाजार की इन्हीं शक्तियों का हाथ है जिसकी तूती आजकल समाज के हर क्षेत्र में गूंज रही है और विरोध करने वालों को अकेला और असहाय बना कर छोड़ दिया जाता है और उनकी आवाज नक्कारखाने की आवाजों में कहीं खो सी जाती है.

बाजार की शक्तियां समाज के हर क्षेत्र में कुछ इस कदर हावी हैं कि अब तो हर चीज बिकाऊ हो चली है. बाजार ने हर चीज यहां तक कि उन जीवन मूल्यों को भी बिकाऊ साबित कर दिया है जिनकी पहले कसमें खाई जाती थी और वक्त पड़ने पर जिनकी रक्षा अपने प्राणों को देकर भी की जाती थी. आज की तारीख में उन्हें महज कोरी भावुकता कहकर हवा में उड़ा दिया जाता है. बाजार का नियम समाज से होकर हमारे हर संबंधों में घर कर चुका है जहां हर रिश्ते की एक तयशुदा कीमत है.

हर इंसान एक खरीदार या उपभोक्ता के रूप में तब्दील हो चुका है. अपने लक्ष्य की प्राप्ति के इस खेल में दूसरा या तो मोहरा भर है या फिर एक प्रतिद्वंदी जिसे किसी भी कीमत पर अपने से आगे नहीं बढ़ने देना है और अवसर पाते ही उसे धूल चटाने के लिए भी तत्पर रहना है. आप कहते हैं कि आप एक नए समाज का निर्माण करना चाहते हैं पर जिसकी बुनियाद ही ईरषया वैर जलन डाह जैसी रूग्ण और नेगेटिव भावनाओं पर जाएंगी उस पर एक स्वस्थ और सर्वांगीण विकसित समाज का सपना भला कैसे संभव है? यह बात आज तक मुझ जैसे लोगों को तो समझ नहीं आई है और मुझे यकीन है कि मेरी जैसी सोच रखने वाले लोग भी मेरी इस बात से अवश्य ही सहमत होंगे.

पर एक रूग्ण मृतप्राय समाज के लिए एक विलापगीत रचने की बजाए आज आवश्यक्ता इस बात की है कि मुद्दों की गंभीरता को महज बौिद्धक विलास के लिए बहस के केंद्र में रखकर उनकी धार और पैनेपन को कुंद और भोंथरा बनाने की बजाए उनपर ठोस कदम उठाए जांए ताकि स्वस्थ और विकसित समाज का सपना साकार होने पाए और लाखों करोड़ों जिंदगियां भी आत्मनिर्भर और स्वावलंबी जीवन का सपना पालने की न केवल तमन्ना ही कर पाए पर उन्हें पूरा करने के लिए साधन भी उन्हें आसानी से उपलब्ध हों.

वर्ना तो साधन संपन्न तबकों और साधनहीनों के बीच बढ़ते अलगाव की आंच से कोई भी झुलसने से नहीं बच जाएगा जैसा कि विश्व के उन तमाम विकसित देशों में विस्फोटक स्थितियां इन्हीं आर्थिक नीतियों का नतीजा है कि हम महज इसलिए अन्देखा करना चाहतें हैं क्योंकि हमारे देश की स्थितियां शायद हमें उतनी विस्फोटक नहीं नजर आती कि उन समस्याओं को सुलझाने या उनके समाधान ढ़ूंढ़ने की दिशा में कोई पहल जा सके.